दिव्यांग बच्चों की सेहत और कॅरियर के लिए मांओं के त्याग को मिला सम्मान

दिव्यांग बच्चों की सेहत और कॅरियर के लिए मांओं के त्याग को मिला सम्मान

मां सबसे बड़ी योद्धा होती है, वो चाहे तो तमाम बाधाओं और अभावों के बावजूद अपनी संतान को हिम्मत देकर ऊंचाईयां छूने का सपना उसकी आंखों में संजो सकती है। उसी की मनोबल होता है जो यह ठान लेता है कि संतान की तमाम शारीरिक कमजोरियों के बाद भी वे उसे आत्मनिर्भर बनाकर रहेगी चाहे उसके मार्ग में पहाड़ जैसी बाधाएं ही क्यों न आएं। ऐसी ही मांओं और उनके दिव्यांग बच्चों की जुबानी प्रेरणा व रास्ता दिखाने वाले कहानियां समाज को प्रेरित करेंगी, जो मां की जिजीविषा को जीता-जागता प्रमाण हैं, किसी मां ने अपनी बच्ची के भविष्य की नन्हीं उम्र में मूक-बधिर बच्ची को खुद से दूर किया तो किसी मां ने बेटे के पैरों के इलाज के लिए पति से 20 साल की दूरी सही। वहीं एक मां और बहन ने मिलकर शादी के बाद बीमारी के चलते आंखों की रोशनी खो चुकी बेटी का भविष्य संवारा। ऐसी माताओं का सम्मान उमंग गौरवदीप सोसायटी वेलफेयर सोसायटी द्वारा कुक्कट भवन में रविवार को किया गया। इस मौके पर नीलम त्रिपाठी, दीप्ति पटवा, डॉ. सुरेंद्र शुक्ला सहित अन्य अतिथि मौजूद रहे।

आंखों की रोशनी जाने के बाद मां और बहन ने शुरू कराई पढ़ाई

पंजाब नेशनल बैंक में हिंदी अधिकारी दृष्टिबाधित विकेश गुर्जर की कहानी में मां कृष्णा गुर्जर के साथ-साथ उनकी बड़ी बहन निधि गुर्जर भी मां से कम नहीं रहीं। विकेश कहती हैं, 12 वीं के बाद मेरी शादी हो गई थी, लेकिन शादी के लगभग चार साल बाद मिंजल्स होने की वजह से मेरी आंखों की पूरी रोशनी चली गई। फिर मैंने तय किया कि पढ़ाई दोबारा शुरू करूंगी और बहन के पास भोपाल आ गई। निधि दीदी मुझे किताबें पढ़कर सुनाती तो कभी रिकॉर्ड कर देतीं फिर मैंने अरुषि से रिकॉर्डेड ग्रेजुएशन बुक्स लेना शुरू की जिससे मुझे पढ़ाई में बहुत मदद मिली। मैंने बीए फिर एम और फिर पीजीडीसीए किया। मैंने बैंक कोचिंग करने का इरादा किया जहां सबधाणी कोचिंग में मुझे बहुत मदद मिली। मैं देख नहीं सकती थी तो कोचिंग की सहेलियां मुझे कई बार लाने-जाने में मदद करती हैं। मैंने बैंकिंग परीक्षा पास की और बैंक में जॉब लगी। सालों बाद फिर से पढ़ाई शुरू करना वो भी आंखों की रोशनी खोने के बाद काफी संघर्षभरा काम था, लेकिन मां और बहन ने मुझे आत्मनिर्भर बनाया। मैंने भोपाल रहना तय किया ।

3 साल की उम्र में स्पेशल स्कूल भेजा, ताकि कुछ बन सके

दिव्या जैन कहती हैं, मेरे बड़ा बेटा मूक-बधिर है और दूसरी बेटी देशना पैदा हुई तो वो भी मूक-बधिर थी। बेटी को तीन साल की नन्ही उम्र में खुद से जुदा करने का पहाड़ टूटने जैसा निर्णय लिया। हम टीकमगढ़ से भोपाल के आशा निकेतन दिव्यांग तीन साल की उम्र में देशना को स्कूल में छोड़ने आ गए। वो लिपट-लिपट कर रोती लेकिन हमने दिल पर पत्थर रखकर उसके भविष्य की खातिर यह कदम उठाया। देशना ने बीए किया और अब बीएड कर रही है। वो स्मार्ट बच्ची है जो कि डांस में बेहतरीन परफॉर्म करती है। वो मिस डीफ एशिया पैसेफिक, मिस डीफ इंटरनेशनल थर्ड रनर-अप और मिस डीफ इंडिया भी रह चुकी है।

20 साल बेटे के इलाज की खातिर पति से रही दूर

सुमित्रा सिंहकहती हैं,मेरे पति राज्य परिवहन में नौकरी करते थे लेकिन वो बंद हो गई, हमारी आर्थिक स्थिति बिगड़ गई और दोनों पैरों से विकलांग बेटे संदीप का इलाज भी जौनपुर और मिर्जापुर में शुरू हो गया। मैं बेटे के इलाज की खातिर पति से 20 साल दूर रही। उसने मेडिकल एंट्रेंस भी पास कर लिया लेकिन हम पढ़ाई के खर्चे नहीं उठा सकते थे। एवीएम से बीएससी व एमबीए एचआर करने के बाद भोपाल के हर्षवर्धन नगर में बेटे ने कोचिंग शुरू की और 2007 से लगातार हर साल 200 से 250 बच्चों को पढ़ाता है। मेरा जीवन संघर्ष सफल रहा जब अपने बेटे संदीप सिंह के चेहरे पर संतुष्टि का भाव देखती हूं कि वो अपने पैरों पर खड़ा है।

इन मांओं का किया गया सम्मान

दिव्या जैन, पुष्पा देवी जैन, कृष्णा गुर्जर, भगवती यादव, सीता नेमा, अभिषाला जैन, उमा गोस्वानी, सुमित्रा सिंह, सुनीता परोहा।