ऐतिहासिक है बंग बंधुओं की दुर्गा प्रतिमा स्थापना का सिलसिला
जबलपुर। संस्कारधानी में दशहरा- नवरात्रि पर देवी की आराधना का प्रचलन यहां कलचुरिकाल से पहले का है। गोंडकाल में तो प्रत्येक सुख-दुख में मातारानी की आराधना ही सर्वोपरि रही। खुशियां और दुखों की अभिव्यक्ति माता की मढ़िया में ही होती थी। बंगाली समाज के लोग जब रोजगार के सिलसिले में जबलपुर आए, तो अपने साथ अपनी संस्कृति और मान्यताएं भी लेकर आए। जबलपुर में बंग बंधुओं द्वारा दुर्गा देवी की मिट्टी से बनी प्रतिमा सर्वप्रथम 1872 में बृजेश्वरदत्त के निवास पर स्थापित की गई।
इसके तीन साल बाद अंबिकाचरण बैनर्जी के घर पर मूर्ति की स्थापना हुई, जो 1930 तक चलती रही। इसके बाद यह उत्सव बंगाली क्लब में मनाया जाने लगा। इतिहासकारों के अनुसार वर्ष 1857 की क्रांति खत्म होने के कुछ सालों बाद मुंबई-हावड़ा रेल लाइन बिछाने की नींव रखी गई थी। इस रेल लाइन के बीच में पड़ने वाला जबलपुर स्टेशन मुख्य जंक्शन था। 1870 में रेल लाइन का काम पूरा होने के बाद जब ट्रेन चलना शुरू हुई तो काम के सिलसिले में कई बंगाली परिवार शहर पहुंचे। 2 साल बाद यानि 1872 में पहली बंगाली प्रतिमा रखी गई।
ये है मान्यता
बबीता घोष के अनुसार बंगाली समाज में मान्यता है कि जगत जननी नौ दिनों के लिए अपने मायके आती हैं। श्रद्धा भक्ति भाव से नौ दिनों तक उनकी आराधना की जाती है। नौ दिनों में हर दिन अलग-अलग पूजा का विधान निभाया जाता है। फिर आखिरी दिन विसर्जन पर सिंदूर उत्सव के साथ मां को विदा करने महिलाएं भी विसर्जन घाट तक जाती हैं।
यहां रखी जाती हैं प्रतिमाएं
क्लब सचिव प्रकाश साहा के अनुसार शहर के हृदय स्थल सिविक सेंटर से लगे बंगाली क्लब में समाज के बंधुओं द्वारा प्रतिमा रखी जाती है। खास बात ये है कि क्लब के पंडाल में ही प्रतिमा की स्थापना की जाती है। डीबी क्लब सतपुला में भी पंडाल पर ही प्रतिमा बनाई जाती है। इसके अलावा गोरखपुर सेंट्रल बैंक भवन, रानीताल रोड टेलीकॉम फैक्टरी मैदान प्रांगण, खमरिया और व्हीएफजे मैदान में भी बंग बंधुओं द्वारा प्रतिमा रखने का क्रम शुरू हुआ है।