मिर्जा और बांके की नोकझोंक में बेगम ले गईं लाइमलाइट

मिर्जा और बांके की नोकझोंक में बेगम ले गईं लाइमलाइट

स्टोरी : डायरेक्टर शूजित सरकार की यह कहानी है फातिमा महल की मालकिन के पति मिर्जा (अमिताभ बच्चन) और उसके एक जिद्दी किराएदार बांके रस्तोगी (आयुष्मान खुराना) की, जिनके बीच लंबे समय से चले आ रहे झगड़े में कई और लोग अपना फायदा लूटने पहुंच जाते हैं। रिव्यू: लखनऊ में मौजूद 100 साल पुरानी हवेली अपने जर्जर हालत में है और टूटने के कगार पर पहुंच चुका है। इस हवेली में कई परिवार 30-70 रुपए जितने मामूली पैसे देकर वहां किराए पर रहता है। वहां बाकी सभी लोगों के बीच में एक ही 'कीड़ा' है जो न तो किराया देता है और न ही वहां से जाता है और वह है- बांके, जिनका हमेशा एक ही बहाना रहता है- मैं गरीब हूं। मिर्जा इन सबमें सबसे अधिक गुस्सैल हैं। वह 78 साल के खूंसट, शरारती व्यक्ति हैं जिसकी एक ही ख्वाहिश है कि वह उस हवेली के कानूनी मालिक बन जाएं और इसी कोशिश में वह हमेशा लगे भी रहते हैं। इन सबके बीच बांके एक दिन कॉमन टॉयलेट की दीवार को तोड़ देता है, जिसके बाद मिर्जा अपने इस फसाद को निपटाने पुलिस स्टेशन पहुंचता है। इसी बीच एंट्री होती है आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (लखनऊ सर्कल) के मिस्टर गणेश मिश्रा (विजय राज) की। गणेश धौंस दिखाने वाला एक चालाक ऑफिसर है, जो यह भांप लेता है कि यह जर्जर खंडहर नैशनल हैरिटेज प्रॉपर्टी (शायद नहीं भी) बन सकता है। वह बांके को कन्विंस करता है कि कैसे उसका प्लान उनके (बांके) और बाकी के किराएदारों के लिए बेहतर साबित हो सकता है। ...लेकिन मिर्जा भी बेवकूफ नहीं हैं और वह भी अपना सीक्रेट पाशा (ब्रिजेन्द्र काला) फेंकते हैं, जो कि प्रॉपर्टी के लफड़ों को सुलझाने में माहिर है। अब यह खंडहर लड़ाईझ गड़ों का अड्डा बन चुका है, आखिर क्यों यह बिखरने के लिए तैयार यह खंडहर यहां रहने वाले लोगों से ज्यादा अहम हो गया है? शूजित सरकार की 'गुलाबो सिताबो' समाज और लोगों की सोच पर एक व्यंग्य की तरह है।