उम्मीद और स्वार्थ की तीन कहानियों के मंचन ने दर्शकों को किया भावुक
विजयदान देथा यानी बिज्जी, उनकी कहानियां चाहे किताब में पढ़ी जाएं या रंगमंच पर गढ़ी जाएं, अलग ही असर छोड़ती हैं। भावुक कर देने वाली उनकी एक ऐसी ही कहानी ‘आशा अमर धन’ का मंचन नाटक ‘हुंकारो’ के रूप में किया गया। हुंकारो के भीतर तीन कहानियां गढ़ी गईं। दरअसल, हुंकारो का शाब्दिक अर्थ- एक मौखिक पुष्टि होता है, श्रोता की ओर से एक प्रतिक्रिया कि वह कहानीकार को सुन रहा है, समझ रहा है। भारत भवन में आदरांजलि ब.व. कारंत स्मृति समारोह का रविवार को नाटक हुंकारो के साथ समापन हुआ। जयपुर के कलाकारों ने उम्मीद की तीन अलग-अलग कहानियों का एक साथ मंचन किया। जिसे दर्शकों द्वारा बहुत पसंद किया गया। इस नाटक के निर्देशक मोहित टाकलकर ने किया। मंच पर अजीत सिंह पालावत, इप्शिता चक्रवर्ती, पुनीत मिश्रा, भारती पेरवानी, महेश सैनी और भास्कर शर्मा ने अभिनय किया। लेखक विजयदान देथा, चिराग खंडेलवाल और अरविंद चारण की कहानियों का मंचन किया गया।
लॉकडाउन के दौरान जिजीविषा की कहानी
वहीं दूसरी कहानी, कोविड महामारी के दौरान की थी जिसमें अमर बिना खाने- पैसों के लंबी दूरी तय करता है लेकिन उसे उम्मीद है कि वे देर-सवेर घर जरूर पहुंचेगा। रास्ते में उसकी मुलाकात एक अजीब प्राणी से होती है, जो उसका सहयात्री, मित्र, शत्रु और दार्शनिक बन जाता है। यह प्राणी आधा कौआ, आधा गिद्ध है, यहां कौआ प्रतिबिंब करता है, मनुष्य के जीवित रहने की प्रवृत्ति और गिद्ध मृत्यु का।
मां-पिता के लौटने की आशा में बच्चे
सौतेली मां, बच्चों को अकेला घर में छोड़कर पति के साथ बाहर चली जाती है। मासूम बच्चे अपने पिता के लौटने की प्रतीक्षा में महीनों बिता देते हैं लेकिन सौतेली मां सोचती है कि बच्चे अब तक मर गए होंगे तो वापस आ जाती है, लेकिन बच्चों को जिंदा देखकर हैरान रह जाती है, क्योंकि बच्चों ने आशा का साथ नहीं छोड़ा था। पिता को देखते ही वे बच्चे प्राण त्याग देते हैं।
मुसीबत में दिव्यांग मां को छोड़ा अकेला
तीसरी कहानी, माई में दो भाई दिव्यांग मां के साथ चॉल में रहते हैं। लॉकडाउन के दौरान दोनों अपनी मां को छोड़कर गांव चले जाते हैं, लेकिन एक भाई अपराधबोध से ग्रस्त होता है तो दूसरा समझता है कि उन्होंने सही निर्णय लिया, क्योंकि कम से कम वे दोनों तो जीवित बच सके।