किसी ने भरी दोस्त की फीस, तो कोई दोस्त की खातिर पैदल चलकर बचाता था किराया

इंटरनेशनल फ्रेंडशिप डे आज: सालों पुराने दोस्तों ने सुनाए अपनी दोस्ती के यादगार अफसाने

किसी ने भरी दोस्त की फीस, तो कोई दोस्त की खातिर पैदल चलकर बचाता था किराया

 कहते हैं, कि तमाम रिश्ते किसी न किसी गरज से बनते हैं लेकिन दोस्ती का रिश्ता ही एक रिश्ता है जो निस्वार्थ भाव होने पर ही प्रगाढ़ होता है। तभी तो दोस्ती की मिसाल और उन पर नगमे बनते हैं। आज भी दुनिया में ऐसे दोस्त और उनकी दोस्ती कायम है जिन्होंने अमीरी-गरीबी के भेद से ऊपर जो मन को भाया उसे दोस्त बनाया और हर मुश्किल में साथ निभाया। भोपाल के ऐसे कुछ दोस्तों की कहानी जिन्होंने कभी एक-दूसरे की फीस जमा की तो कभी साइकिल पर साथ लेकर सालों कोचिंग लाने ले जाने की जिम्मेदारी उठाई। घर के खाने के लिए 11 किमी पैदल चले तो दोस्त ने वापसी में मिनी बस के किराए के पैसे थमा दिए कि साथी अकेला पैदल वापस न जाए। कोविड में पार्क में हुई दोस्ती ने देश- दुनिया में नाम कमाने का मौका दिया। इंटरनेशनल फ्रेंडशिप डे के मौके पर ऐसी ही चंद कहानियां पेश कर रहे हैं।

दोस्त की पढ़ाई के लिए निभाया साथ

मैं और मेरा दोस्त धर्मेंद्र मेवाड़े स्कूल में पांचवीं क्लास से साथ पढ़े हैं, लेकिन धर्मेंद्र की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी, वो स्कूल के बाद जेपी हॉस्पिटल में मरीजों के परिवार को चाय बेचने जाता था और किसी तरह अपनी पढ़ाई जारी रख पा रहा था। मुझे जब भी नाते-रिश्तेदारों के घर आने पर रुपए मिलते तो मैं उससे दोस्त की फीस जमा करवा देता। नौवीं से लेकर 12 वीं तक मैं हर दिन उसे अपनी साइकिल से कोचिंग लेकर जाता था ताकि वो अच्छे से पढ़ाई कर सके। यह मेरा हर दिन का नियम था, स्कूल से दोपहर 1 बजे छूटने के बाद मैं अम्बेडकर नगर अपने घर जाता और फिर वापस शिवाजी नगर जाकर धर्मेंद्र को कोचिंग के लिए लेता और फिर हम तुलसी नगर पढ़ने जाते, फिर वो वापसी में साइकिल चलाता और उसे छोड़कर फिर मैं वापस अपने घर जाता। हम दोनों का साथ था तो उसे हिम्मत मिली। उसने फाइन आर्ट्स की पढ़ाई की और आज नामी पेंटिंग और मेहंदी डिजाइनर बन चुका है और अब वो जरूरत पड़ने पर हमेशा मेरी मदद के लिए तैयार खड़ा रहता है। -सुभाष गर्ग, ट्रेनर, यंगशाला

कोविड में बन गई हमारी जोड़ी

स्पेन में 1 अक्टूबर को होने जा रहे आयरनमैन कॉम्पिटीशन में मैं और नंदन नरूला साथ जाने वाले हैं। हमारी दोस्ती कोविड की देन हैं क्योंकि उसी वक्त हम ऐसे दोस्त बने जो भारत की हर बड़ी साइकिल एक्सपीडिशन को अटेंड कर चुके हैं और कईयो में जीत चुके हैं। लॉकडाउन के समय आईटी पार्क में मुझे नंदन वर्कआउट करते दिखे, तब कोई बात करने के लिए भी सामने नहीं होता था, ऐसे में कोई अपने जैसा मिल जाए तो अच्छा लगता है। हम साथ में वर्कआउट व साइकलिंग करने लगे। हम15 से ज्यादा एक्सपीडिशन साथ कर चुके हैं। हर दिन साथ में वर्कआउट और कॉम्पिटीशन की तैयारी करते हैं। एक्सपीडिशन में होने वाले सभी खर्चे हमेशा नंदन उठाते हैं, मुझे कभी सोचना भी नहीं पड़ता कि फंड्स कितने, क्या खर्च होंगे क्योंकि वे कभी इस बारे में चर्चा नहीं करते। जब फुरसत होती है, तब मैं हिसाब लगाकर अपने खर्चे की राशि उन्हें देता हूं। हमारी दोस्ती ऐसी है कि हम कॉम्पिटीशन में बिना बोले बस इशारे से एक-दूसरे के प्लान व बात को समझ लेते हैं। -जामरान हुसैन, आयरनमैन स्पर्धा विजेता

किमी पैदल जाते थे खाना खाने

मैं और मेरे दोस्त नीरज शुक्ला 11 वीं क्लास में एनएसएस के जरिए दोस्त बने और हम दोनों की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। नीरज के तो पिता भी नहीं थे। मैं हॉस्टल में रहकर पढ़ाई कर रहा था, कई बार खाना बनाने का मन नहीं करता था तो नीरज मुझे अपने घर खाना खिलाने ले जाता था, वो भी बिना किसी पूर्व योजना के। हमारे पास मिनी बस के रुपए नहीं होते थे तो हम हमीदिया कॉलेज से भरत नगर लगभग 11 किमी पैदल उसके घर खाना खाने जाते और वापसी में मैं अकेला आऊंगा यह सोचकर वो मुझे मिनी बस के किराए के पैसे दे देता था। घर से दूर रह रहे मेरे जैसे लड़के लिए इतना सब कुछ बहुत ही भावुक कर देना वाला होता था। उसके परिवार में कोई भी बड़ा निर्णय उसकी बजाए मेरे से पूछ कर लिया जाने लगा, उसके पूरे परिवार ने मुझे अपना बेटा बना लिया। जब नीरज की भेल में जॉब लगी तब मेरी जॉब नहीं लगी थी, तो वो बिना मेरे कहे मेरे वॉलेट में रुपए रख दिया करता था। हमारी दोस्ती दिन पर दिन गहरी होती जा रही है। -राहुल सिंह परिहार, एनएसएस कार्यक्रम अधिकारी